एक बार फिर उठा ,आँखों में लपटे लिए हुए ,सोचा कुछ न कुछ तो जला के ही छोडूंगा !
माटी के ढेर में पटे हुए रिश्ते ,अमावश की रात जैसी ये तन्हाई , और भी बहुत कुछ जो इन सितारों की तरह गिना नहीं जा सकता !
माटी की परते निकालता चला गया रिश्ते ढूढने के लिए ,
परत दर परत कुछ न कुछ मिलता गया ,झूठ ,फरेब,लालच ,
सब देखता गया सोचा हो सकता है इन्ही में कही रिश्ते भी छिपे हों,
मिली इर्ष्या,कड़वाहट और इन सबके नीचे मिली तन्हाई!
मैंने सोचा जलाऊंगा जरूर रिश्ते न सही तन्हाई ही ,
और फिर अँधेरा और गहरा अँधेरा ,
लपटे बुझने लगीं ,
मै फिर भी चलता गया!
अब लपटे बुझ चुकी थीं ,
और सामने था सिर्फ अँधेरा ,
मै और आगे गया ,
अब मुझे ठण्ड महसूस होने लगी ,
चारो तरफ बर्फ ही बर्फ ,
और मै परिस्थितियों की बर्फ में अकड़ा खड़ा था !
न आग थी ,न उजाला ,
कुछ था तो बस मेरा शरीर ,अँधेरा ,ठण्ड और अकड़न !!
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